hindi vyAkaran_हिंदी व्याकरण - 5

तीसरा अध्याय - वर्णों का उच्चारण और वर्गीकरण / कामताप्रसाद गुरू (kAmatAprasAd guru)

30. मुख के जिस भाग से जिस अक्षर का उच्चारण होता है, उसे उस अक्षर का स्थान कहते हैं।

31. स्थान भेद से वर्णों के नीचे लिखे अनुसार वर्ग होते हैं -

कंठ्य -  जिनका उच्चारण कंठ से होता है; अर्थात् अ, आ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और विसर्ग।
तालव्य -  जिनका उच्चारण तालु से होता है; अर्थात् इ, ई, च, छ, ज, झ, ×ा, और श।
मूर्धन्य -  जिनका उच्चारण मूर्धा से होता है; अर्थात् ट, ठ, ड, ढ, ण, र और ष।
1. हिंदी में बहुधा अनुनासिक ( ँ ) के बदले में भी अनुस्वार आता है, जैसे - हँसना=हंसना, पाँच=पांच। (देखो 50वाँ अंक) � � हिंदी व्याकरण ध् 45
दंत्य -  जिनका उच्चारण ऊपर के दाँतों पर जीभ लगाने से होता है; अर्थात् त, थ, द, ध, न, ल और स।
ओष्ठ्य -  जिनका उच्चारण ओठों से होता है, जैसे - उ, ऊ, प, फ, ब, भ, म।
अनुनासिक -  जिनका उच्चारण मुख और नासिका से होता है, अर्थात् ङ, ×ा, ण, न, म, और अनुस्वार। (देखो 39वाँ और 46वाँ अंक)। (सू. - स्वर भी अनुनासिक होते हैं। (देखो 29वाँ अंक)।
कंठतालव्य -  जिनका उच्चारण कंठ और तालु से होता है; अर्थात् ए, ऐ। कंठोष्ठ्य -  जिनका उच्चारण कंठ और ओठों से होता है; अर्थात् ओ, औ।
दंत्योष्ठ्य -  जिनका उच्चारण दाँत और ओठों से होता है; अर्थात् व।

32. वर्णों के उच्चारण की रीति को प्रयत्न कहते हैं। ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वागिंद्रिय की क्रिया को आभ्यंतर प्रयत्न और ध्वनि के अंत की क्रिया को बाह्य प्रयत्न कहते हैं।

33. आभ्यंतर प्रयत्न के अनुसार वर्णों के मुख्य चार भेद हैं -
(1) विवृत - इनके उच्चारण में वागिंद्रिय खुली रहती है। स्वरों का प्रयत्न विवृत कहलाता है।
(2) स्पृष्ट - इनके उच्चारण में वागिंद्रिय का द्वार बन्द रहता है।
‘क’ से लेकर ‘म’ तक 25 व्यंजनों को स्पर्श वर्ण कहते हैं।
(3) ईषत् विवृत - इनके उच्चारण में वागिंद्रिय कुछ खुली रहती है। इसी भेद में य, र, ल, व हैं। इनको अंतस्थ वर्ण भी कहते हैं; क्योंकि इनका उच्चारण स्वर और व्यंजनों का मध्यवर्ती है।
(4) ईषत् स्पृष्ट -  इनका उच्चारण वागिंद्रिय के कुछ बन्द रहने से होता है - श, ष, स, ह। इन वर्णों के उच्चारण में एक प्रकार का घर्षण होता है; इसलिए इन्हें ऊष्म वर्ण भी कहते हैं।

बाह्य प्रयत्न के अनुसार वर्णों के मुख्य दो भेद हैं - (1) अघोष, (2) घोष।
(1) अघोष वर्णों के उच्चारण में केवल श्वास का उपयोग होता है, उनके उच्चारण में घोष अर्थात् नाद नहीं होता। (2) घोष वर्णों के उच्चारण में केवल नाद का उपयोग होता है। अघोष वर्ण -  क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, और श, ष, स। घोष वर्ण -  शेष व्यंजन और सब स्वर। (सू. - बाह्य प्रयत्न के अनुसार केवल व्यंजनों के जो भेद हैं, वे आगे दिए जायँगे। (देखो 44वाँ अंक)।

स्वर 
35. उत्पत्ति के अनुसार स्वरों के दो भेद हैं -  (1) मूल स्वर, (2) संधि स्वर।

46 ध् हिंदी व्याकरण (1) जिन स्वरों की उत्पत्ति किन्हीं दूसरे स्वरों से नहीं है, - उन्हें मूल स्वर (वा Ðस्व) कहते हैं। वे चार हैं - अ, इ, उ और ऋ।
(2) मूल स्वरों के मेल से बने हुए स्वर संधि स्वर कहलाते हैं; जैसे - आ, ई, ए, ऐ, ओ, औ।

36. संधि स्वरों के दो भेद हैं -  (1) दीर्घ और (2) संयुक्त।
 (1) किसी एक मूल स्वर में उसी मूल स्वर के मिलाने से जो स्वर उत्पन्न होता है, उसे दीर्घ कहते हैं; जैसे - अ ़ अ = आ, इ ़ इ = ई, उ ़ उ = ऊ, अर्थात् आ, ई, ऊ दीर्घ स्वर हैं। (सू. - ऋ ़ ऋ = ऋृ; यह दीर्घ स्वर हिंदी में नहीं है।)
(2) भिन्न-भिन्न स्वरों के मेल से जो स्वर उत्पन्न होता है, उसे संयुक्त स्वर कहते हैं, जैसे - अ ़ इ = ए, अ ़ उ = ओ, आ ़ ए = ऐ, आ ़ ओ = औ।

37. उच्चारण के कालमान के अनुसार स्वरों के दो भेद किए जाते हैं - लघु और गुरु।
उच्चारण के कालमान को मात्राा1 कहते हैं।
जिस स्वर के उच्चारण में एक मात्राा लगती है उसे लघु स्वर कहते हैं; जैसे - अ, इ, उ, ऋ।
जिस स्वर के उच्चारण में दो मात्रााएँ लगती हैं उसे गुरु स्वर कहते हैं; जैसे - आ, ई, ए, ऐ, ओ, औ। (सू. 1 - सब मूल स्वर लघु और सब सन्धि स्वर गुरु हैं।)
(सू. 2 - संस्कृत में प्लुत नाम से स्वरों का एक तीसरा भेद माना जाता है; पर हिंदी में उसका उपयोग नहीं होता। ‘प्लुत’ शब्द का अर्थ है ‘उछलता हुआ’।
प्लुत में तीन मात्रााएँ होती हैं। वह बहुधा दूर से पुकारने, रोने, गाने और चिल्लाने में आता है। उसकी पहचान दीर्घ स्वर के आगे तीन का अंक लिख देने से होती है, जैसे - ए! 3 लड़के ! 3, हूँ ! 3।)

38. जाति के अनुसार भी स्वरों के दो भेद हैं -  असवर्ण और सवर्ण अर्थात् सजातीय और विजातीय।
समान स्थान और प्रयत्न से उत्पन्न होने वाले स्वरों को सवर्ण कहते हैं।
 जिन स्वरों के स्थान और प्रयत्न एक से नहीं होते, वे असवर्ण कहलाते हैं। अ, आ; परस्पर सवर्ण हैं। इसी प्रकार इ, ई तथा उ, ऊ सवर्ण हैं। अ, इ, वा अ, ऊ अथवा इ, ऊ असवर्ण स्वर हैं। (सू. - ए, ऐ, ओ, औ इन संयुक्त स्वरों में परस्पर सवर्णता नहीं है; क्योंकि ये असवर्ण स्वरों से उत्पन्न हैं।)

39. उच्चारण के अनुसार स्वरों के दो भेद और हैं -  (1) सानुनासिक और (2) निरनुनासिक। 1. हिंदी में ‘मात्राा’ शब्द के दो अर्थ हैं - एक स्वरों का रूप (देखो 9वाँ अंक) दूसरा कालमान।

हिंदी व्याकरण ध् 47 यदि मुँह से पूरा श्वास निकाला जाय तो शुद्ध-निरनुनासिक-ध्वनि निकलती है, पर यदि श्वास का कुछ भी अंश नाक से निकाला जाय तो अनुनासिक ध्वनि निकलती है। अनुनासिक स्वर का चिद्द ( ँ ) चंद्रबिंदु कहलाता है; जैसे - गाँव, ऊँचा।
अनुस्वार और अनुनासिक व्यंजनों के समान चंद्रबिंदु कोई स्वतंत्रा वर्ण नहीं है; वह केवल अनुनासिक स्वर का चिद्द है। अनुनासिक व्यंजनों को कोई कोई नासिक्य और अनुनासिक स्वरों को केवल ‘अनुनासिक’ कहते हैं। कभी कभी यह शब्द चंद्रबिंदु का पर्यायवाचक भी होता है। (देखो 46वाँ अंक)

40. (क) हिंदी में अंत्य का उच्चारण प्रायः हल के समान होता है; जैसे - गुण, रात, धन इत्यादि। इस नियम के कई अपवाद हैं -
(1) यदि अकारांत शब्द का अंत्याक्षर संयुक्त हो, तो अंत्य का उच्चारण पूरा होता है; जैसे - सत्य, इंद्र, गुरुत्व, सन्न, धर्म, अशक्त इत्यादि।
(2) इ, ई वा ऊ के आगे य हो, तो अंत्य अ का उच्चारण पूर्ण होता है; जैसे - प्रिय, सीय, राजसूय, इत्यादि।
(3) एकाक्षरी अकारांत शब्दों के अंत्य अ का उच्चारण पूरा-पूरा होता है; जैसे - न, व, र, इत्यादि।
(4) (क) कविता में अंत्य अ का पूर्ण उच्चारण होता है; जैसे - ‘समाचार जब लक्ष्मण पाए’, परंतु जब इस वर्ण पर यति1 होती है; तब इसका उच्चारण बहुधा अपूर्ण होता है; जैसे - ‘कुंद इंदु सम देह उमारमन करुणा अयन’।
(ख) दीर्घ स्वरांत त्रयक्षरी शब्दों में यदि दूसरा अक्षर अकारांत हो तो उसका उच्चारण अपूर्ण होता है; जैसे - बकरा, कपड़े, करना, बोलना, तानना इत्यादि।
(ग) चार अक्षरों के Ðस्व स्वरांत शब्दों में यदि दूसरा अक्षर अकारांत हो तो उसके अ का उच्चारण अपूर्ण होता है; जैसे - गड़बड़, देवधन, मानसिक, सुरलोक, कामरूप, बलहीन। अपवाद -  यदि दूसरा अक्षर संयुक्त हो अथवा पहला अक्षर कोई उपसर्ग हो तो दूसरे अक्षर के अ का उच्चारण पूर्ण होता है; जैसे - पुत्रालाभ, धर्महीन, आचरण, प्रचलित।
(घ) दीर्घ स्वरांत चार अक्षरी शब्दों में तीसरे अक्षर के अ का उच्चारण अपूर्ण होता है; जैसे - समझना, निकलना, सुनहरी, कचहरी, प्रबलता।
(ङ) यौगिक शब्दों में मूल अवयव के अंत्य अ का उच्चारण आधा (अपूर्ण) होता है; जैसे - देवधन, सुरलोक, अन्नदाता, सुखदायक, शीतलता, मनमोहन, लड़कपन इत्यादि।

41. हिंदी में ऐ और औ का उच्चारण संस्कृत से भिन्न होता है। तत्सम शब्दों में इनका उच्चारण संस्कृत के ही अनुसार होता है; पर हिंदी में ऐ बहुधा अय् और औ बहुधा अव् के समान बोला जाता है; जैसे -  1. विश्राम 48 ध् हिंदी व्याकरण संस्कृत -  ऐश्वर्य, सदैव, पौत्रा, कौतुक इत्यादि। हिंदी -  है, मैल, और चैथा इत्यादि।
(क) ए और ओ का उच्चारण कभी-कभी क्रमशः इ और ए तथा उ और ओ का मध्यवर्ती होता है; जैसे - (इकट्ठा), एकट्ठा, मिहतर (मेहतर), उसीसा (ओसीसा), गुबरैला (गोबरैला)।

42. उर्दू और अँगरेजी के कुछ अक्षरों का उच्चारण दिखाने के लिए, अ, आ, इ, उ आदि स्वरों के साथ बिंदी और अर्धचंद्र लगाते हैं; जैसे - इल्म, उम्र, लॉर्ड। इन चिद्दों का प्रचार सार्वदेशिक नहीं है और किसी भी भाषा में विदेशी उच्चारण पूर्ण रूप से प्रकट करना कठिन भी होता है। व्यंजन

43. स्पर्श व्यंजनों के पाँच वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। प्रत्येक वर्ग का नाम पहले वर्ण के अनुसार रखा गया है; जैसे -  क-वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ। च-वर्ग - च, छ, ज, झ, ×ा। ट-वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण। त-वर्ग - त, थ, द, ध, न। प-वर्ग - प, फ, ब, भ, म।

44. बाह्य प्रयत्न के अनुसार व्यंजनों के दो भेद हैं -  (1) अल्पप्राण और (2) महाप्राण।
जिन व्यंजनों में हकार की ध्वनि विशेष रूप से सुनाई देती है उनको महाप्राण और शेष व्यंजनों को अल्पप्राण कहते हैं; स्पर्श व्यंजनों में प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चैथा अक्षर तथा ऊष्म महाप्राण है; जैसे - ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ और श, ष, स, ह। शेष व्यंजन अल्पप्राण हैं। सब स्वर अल्पप्राण हैं। (सू. - अल्पप्राण अक्षरों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता है। ख, घ, छ आदि व्यंजनों के उच्चारण में उनके पूर्ववर्ती व्यंजनों के साथ हकार की ध्वनि मिली हुई सुनाई पड़ती है, अर्थात् ख = क् ़ ह, छ = च् ़ ह। उर्दू, अँगरेजी आदि भाषाओं में महाप्राण अक्षर ह मिलाकर बनाए गए हैं।)

45. हिंदी में ड और ढ के दो-दो उच्चारण होते हैं - (1) मूर्धन्य (2) द्विस्पृष्ट।
(1) मूर्धन्य उच्चारण आगे लिखे स्थानों में होता है -  हिंदी व्याकरण ध् 49
(क) शब्द के आदि में; जैसे - डाक, डमरू, डग, ढम, ढिग, ढंग, ढोल, इत्यादि।
(ख) द्वित्व में, जैसे - अड्डा, लड्डू, खड्ढा।
 (ग) Ðस्व स्वर के पश्चात् अनुनासिक व्यंजन के संयोग में; जैसे - डंडा, पिंडी, चंडू, मंडप इत्यादि।
(2) द्विस्पृष्ट उच्चारण जिह्ना का अग्रभाग उलटाकर मूर्धा में लगाने से होता है। इस उच्चारण के लिए इन अक्षरों के नीचे एक बिंदी लगाई जाती है। द्विस्पृष्ट उच्चारण बहुधा नीचे लिखे स्थानों में होता है -
(क) शब्द के मध्य अथवा अंत में; जैसे - सड़क, पकड़ना, आड़, गढ़, चढ़ाना इत्यादि।
(ख) दीर्घ स्वर के पश्चात् अनुनासिक व्यंजन के संयोग में दोनों उच्चारण बहुधा विकल्प से होते हैं; जैसे - मूँडना, मूँड़ना, खाँड, खाँड़, मेढा, मेढ़ा इत्यादि।

46. ङ, ×ा, ण, न, म का उच्चारण अपने-अपने स्थान और नासिका से किया जाता है। विशिष्ट स्थान से श्वास उत्पन्न कर उसे नाक के द्वारा निकालने से इन अक्षरों का उच्चारण होता है। केवल स्पर्श व्यंजनों के एक-एक वर्ग के लिए एक-एक अनुनासिक व्यंजन है, अंतस्थ और ऊष्म के साथ अनुनासिक व्यंजन का कार्य अनुस्वार से निकलता है। अनुनासिक व्यंजनों के बदले में विकल्प से अनुस्वार आता है; जैसे - अú=अंग, कण्ठ=कंठ, च×चल=चंचल इत्यादि।

47. अनुस्वार के आगे कोई अंतस्थ व्यंजन अथवा ह हो तो उसका उच्चारण दंततालव्य अर्थात् व के समान होता है; परंतु श, ष, स के साथ उसका उच्चारण बहुधा न् के समान होता है; जैसे - संवाद, संरक्षा, सिंह, अंश, हंस इत्यादि।

48. अनुस्वार ( ं ) और अनुनासिक ( ँ ) के उच्चारण में अंतर है, यद्यपि लिपि में अनुनासिक के बदले बहुधा अनुस्वार ही का उपयोग किया जाता है (देखो 39वाँ अंक)। अनुस्वार दूसरे स्वरों अथवा व्यंजनों के समान एक अलग ध्वनि है; परंतु अनुनासिक स्वर की ध्वनि केवल नासिक्य है। अनुस्वार के उच्चारण में (देखो 46वाँ अंक) श्वास केवल नाक से निकलता है; पर अनुनासिक के उच्चारण में वह मुख और नासिका से एक ही साथ निकाला जाता है। अनुस्वार, तीव्र और अनुनासिक धीमी ध्वनि है, परंतु, दोनों के उच्चारण के लिए पूर्ववर्ती स्वर की आवश्यकता होती है; जैसे - रंग, रँग, कंबल, कुँवर, वेदांत, दाँत, हंस, हँसना इत्यादि।

49. संस्कृत शब्दों में अंत्य अनुस्वार का उच्चारण म् के समान होता है; जैसे - वरं, स्वयं, एवं। 50. हिंदी में अनुनासिक के बदले बहुधा अनुस्वार लिखा जाता है; इसलिए अनुस्वार का अनुनासिक उच्चारण जानने के लिए कुछ नियम आगे दिए जाते हैं -

50 ध् हिंदी व्याकरण
(1) ठेठ हिंदी शब्दों के अंत में जो अनुस्वार आता है, उसका उच्चारण अनुनासिक होता है; जैसे - मैं, में, गेहूं, जूं, क्यों।
(2) पुरुष अथवा वचन के विकार के कारण आनेवाले अनुस्वार का उच्चारण अनुनासिक होता है; जैसे - करूं, लड़कों, लड़कियां, हूं, हैं इत्यादि।
(3) दीर्घ स्वर के पश्चात् आनेवाला अनुस्वार अनुनासिक के समान बोला जाता है; जैसे - आंख, पांच, ईंधन; ऊंट, सांभर, सौंपना इत्यादि।

50. (क) - लिखने में बहुधा अनुनासिक अ, आ, उ और ऊ में ही चंद्रबिंदु का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इनके कारण अक्षर के ऊपरी भाग में कोई मात्राा नहीं लगती; जैसे - अँधेरा, हँसना, आँख, दाँत, ऊँचाई, कुँवर, ऊँट, करूँ इत्यादि। जब इ और ए अकेले आते हैं; तब उनमें चंद्रबिंदु और जब व्यंजन में मिलते हैं, तब चंद्रबिंदु के बदले में अनुस्वार ही लगाया जाता है; जैसे - इँदारा, सिंचाई, संज्ञाएँ, ढेंकी इत्यादि। (सू. - जहाँ उच्चारण में भ्रम होने की सम्भावना हो वहाँ अनुस्वार और चंद्रबिंदु पृथक् लिखे जायँ; जैसे - अँधेर (अन्धेर), अँधेरा, हंस (हन्स), हँस इत्यादि।)

51. विसर्ग (ः) कंठ्य वर्ण है। इसके उच्चारण में ह के उच्चारण को एक झटका सा देकर श्वास को मुँह से एकदम छोड़ते हैं। अनुस्वार वा अनुनासिक के समान विसर्ग का उच्चारण भी किसी स्वर के पश्चात् होता है। यह हकार की अपेक्षा कुछ धीमा बोला जाता है; जैसे - दुःख, अंतःकरण, छिः, हः इत्यादि। (सू. - किसी-किसी वैयाकरण के मतानुसार विसर्ग का उच्चारण केवल हृदय में होता है, और मुख के अवयवों से उसका कोई संबंध नहीं रहता।)

52. संयुक्त व्यंजन के पूर्व Ðस्व स्वर का उच्चारण कुछ झटके के साथ होता है, जिससे दोनों व्यंजनों का उच्चारण स्पष्ट हो जाता है, जैसे - सत्य, अड्डा, पत्थर इत्यादि। हिंदी में म्ह, न्ह, आदि का उच्चारण इसके विरुद्ध होता है, जैसे - तुम्हारा, उन्हें, कुल्हाड़ी, सह्यो।

53. दो महाप्राण व्यंजनों का उच्चारण एक साथ नहीं हो सकता; इसलिए उनके संयोग में पूर्व वर्ण अल्पप्राण ही रहता है; जैसे - रक्खा, अच्छा, पत्थर इत्यादि।

54. उर्दू के प्रभाव से ज और फ का एक-एक और उच्चारण होता है। ज का दूसरा उच्चारण दंततालव्य और फ का दंतोष्ठ्य है। इन उच्चारणों के लिए अक्षरों के नीचे एक-एक बिंदी लगाते हैं, जैसे - ज़रूरत, फश्ुरसत इत्यादि। ज“ और फश् से अँगरेजी के भी कुछ अक्षरों का उच्चारण प्रकट होता है, जैसे - स्वेज“, फश्ीस इत्यादि।

55. हिंदी में ज्ञ का उच्चारण बहुधा ‘ग्यँ’ के सदृश होता है। महाराष्ट्री लोग इसका उच्चारण द्न्यँ के समान करते हैं। पर इसका शुद्ध उच्चारण प्रायः ‘ज्यँ’ के समान है।